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Hindi Section ( 28 March 2012, NewAgeIslam.Com)

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The Relationship between Male and Female Genders in Pre-modern Islamic Law मध्यकालीन इस्लामी क़ानून में मर्द और स्त्री के बीच संबंध


डॉक्टर अदिस दुदरीजा, न्यु एज इस्लाम

इस्लामिक स्टडीज़, युनिवर्सिटी आफ मेलबोर्न

(अंग्रेजी से अनुवाद- समीउर रहमान, न्यु एज इस्लाम)

पारंपरिक इस्लामी कानून में बड़ी संख्या में विशिष्ट लैंगिक अधिकारों, दायित्वों और सरकारी / राजनीतिक कानून,  शिक्षा, रस्मी, कानूनी विभागों और निजी व्यवहार के बारे में आदर्श शामिल हैं। ये लेख उन्हीं पर प्रकाश डालने की कोशिश करेगा और संक्षेप में मर्द और औरत की लैंगिकता को मध्यकालीन समझ की प्रकृति की समीक्षा पेश करेगा। इसमें आयत 4:34 और 2:228 के मध्यकालीन और कुरान की आधुनिक तशरीह (व्याख्या) की मिसालों को शामिल किया गया है जो लिंगों के बीच लैंगिक पदानुक्रम के संबंध को जाहिर करती हैं और पारंपरिक मुस्लिम परिवारिक कानून के कुछ पहलुओं के संबंध में उसके प्रभाव की समीक्षा करती है।

 1. कानून के संबंध में लैंगिक अंतर

एक औरत का विरासत में हिस्सा एक आदमी के आधा होता है। अगर एक औरत इस्लाम इर्तेदाद (मुकर) करती है तो वो एक मर्द मुर्तिद की सूरत के जैसी कत्ल नहीं की जायेगी, इसके बावजूद भी उसे प्रतिदिन नमाज़ औऱ वाजिब रोज़े को रखना होगा। सिर्फ एक मर्द को एकतरफ़ा तौर पर तलाक देने का अधिकार है। तलाक की स्थिति में बच्चों की तहवील खुद बखुद शौहर को स्थानांतरित हो जाएगी। सिर्फ नौजवान औरतें अगर उनके मर्द वली (संरक्षक) इस की इजाज़त दे तभी वो निकाह कर सकती हैं। एक औरत के खुन बहा का मुआवजा एक आदमी के मुकाबले आधा होता है। शारीरिक चोट के मामले में बदले की सूरत में औरत को मर्द के बराबर मुआवजा तभी तक मिलता है जब तक कि वित्तीय मुआवजा एक पूरा खून बहा की राशि के एक तिहाई से अधिक है, इसके बाद एक मर्द का आधा हो जाता है। इसका मतलब ये हुआ कि शारीरिक चोट के मामले में मर्द का मुआवजा जिस कदर बढ़ता है औरत का वैसे ही कम होता जाता है।

2. आम व्यक्तिगत नियम और शिक्षा के संबंध में लड़कियों से भेदभाव

एक औरत सार्वजनिक स्नान घरों में नहीं जाती है। औरतों को बीमारों के पास जाने को मुस्तहब नहीं समझा जाता है। एक औरत घोड़े की काठी पर सवारी तब तक नहीं करती है जब तक बिल्कुल जरूरी न हो या फिर यात्रा पर हो। एक औरत को फुटपाथ के बीच में नहीं चलना चाहिए लेकिन उसके दोनों किनारों पर चल सकती है। एक औरत घर के ऐसे कमरे में नहीं रह सकती है जहां से सड़क दिखती हो। एक औरत किसी गैर-रिश्तेदार मर्द के साथ हाथ नहीं मिला सकती है या उसके हाथ पर वफादारी का संकल्प नहीं कर सकती है, जब तक कि उसके हाथ ढकें हुए न हों। एक मर्द को एक ऐसी जगह नहीं बैठ चाहिए जहां से एक औरत कुछ पलों पहले उठी हो, और इस जगह से  जब तक कि उसके शरीर से छोड़ी गई गर्मी खत्म न हो जाए। इसकी सलाह नहीं दी जाती है कि औरतों को कैसे लिखा जाता है सिखाया जाए, हां ये सलाह दी जाती है कि उन्हें कताई कैसे की जाती है, सिखाया जाए। औरतों को कुरान की आयत नम्बर 24 पढ़ाई जानी चाहिए जो औरतों के लिए आचरण के नियमों को स्पष्ट किया गया है लेकिन आयत नम्बर 12 नहीं पढ़ाई जानी चाहिए जिसमें मिस्री औरतों की हज़रत यूसुफ अलैहिस्सालाम  से प्यार की कहाना का ज़िक्र है। बच्चे के जन्म के समय, किसी भी [अनावश्यक] औरत को कमरे से निकल जाना चाहिए ताकि वह लेबर के दैरान औरत की शर्मगाह न देख सके। एक औरत के लिए पवित्र संघर्ष (जिहाद) अपने शौहर की उचित देखभाल करना है। शौहर के अधिकार एक औरत की प्राथमिकताओं का गठन करते हैं। एक मुस्लिम औरत को एक यहूदी या ईसाई औरत के सामने अपने कपड़े नहीं उतारने चाहिए। एक औरत को खुशबू का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, जब वो बाहर जा रही हो। एक औरत को अपने आप को पुरुषों की तरह नहीं बनाना चाहते हुए क्योंकि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने ऐसे पुरुषों, जो खुद को औरतों और ऐसी औरतें जो अपने आप को पुरुषों की तरह दिखाई दें, बनाती हैं उन पर लानत भेजी है। एक औरत दायित्व से अधिक रोज़े को छोड़कर अपने शौहर की इजाज़त के बिना रोज़े नहीं रख सकती है। बीवीको अपने शौहर की यौन जरूरतों के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए, लेकिन वह खुद ही कोई विशेष लैंगिक अधिकार नहीं रखती है।

3. न्यायपालिका के मामलों में लैंगिक भेदभाव

बहुमत की राय ये है कि औरतें जजों के रूप में काम नहीं कर सकती हैं। औरतों की बतौर गवाह आपराधिक कानून के मामलों में, और न ही तलाक या चाँद देखने के मामले में गवाही सही नहीं है। लेकिन, ये दुरुस्त है कि पुरुषों को बच्चे जन्म के जैसे मामलों की सीधी जांच की इजाज़त नहीं है।

4. इन लैंगिक भेदभाव के कारण

इनमें से अधिकांश लैंगिक भेदभाव को मर्दों और औरतों की विशिष्ट यौन समझ या लैंगिक पूर्णता के विचार में जो तर्क देता है कि औरतें, मर्दों के विपरीत, कमजोर और आसानी से उलझाई जा सकने वाली और बहुत भावुक प्राणी हैं या कुछ लोगों के अनुसार कम बुद्धि वाली हैं,  इन जैसे विचारों में तलाशी जा सकता है। सबसे पहली घारणा जो पारंपरिक या पर्व आधुनिक विचारों की रहनुमाई करती है कि औरत और मर्द की लैंगिकता उनका बुनियादी अंतर है। इस कथन के अनुसार लैंगिकता मर्दानगी और निस्वानियत की तामीर की दर्जा बंदी करने वाली है। इन लैंगिक भेदभावों के बारे में कहा जाता है कि ये जैविक और मानसिक कार्यों और क्षमताओं पर आधारित हैं जो लैंगिक दोहरेपन के विचार में शामिल लैंगिकता के अंतर को अलग करता है। यह 'लैंगिक दोहरापन ये भी कल्पना करता है कि औरतों की प्रकृति पुरुषों की तुलना में  प्रसूत है जिसकी बरतरी वजूदियाती और सामाजिक व नैतिक दोनों है। इसके अलावा औरत के शरीर को लैंगिक और नैतिक रूप से बिगाड़ पैदा करने वाला समझा जाता है। पुरुषों के बारे में माना जाता है कि इनमें औरतों को देखकर, उनकी खुश्बू या उनकी आवाज़ से न बुझने वाली यौन इच्छा पैदा होती है और इस तरह ये पुरुषों की ऊर्जा को उनके महत्वपूर्ण धार्मिक और सार्वजनिक कार्यों से उसका रुख बदलती हैं। इसके अलावा,  औरतों के बारे में मध्यकालीन विचार (कृत्रिम रूप से) शरीर और दिमाग,  लैंगिकता और आध्यात्मिकता के बीच विभाजन पर स्थापित है। औरतों को लैंगिक रूप से श्रेणीबद्ध मुख्य रूप से यौन आधार पर किया गया है। औरतों की यौन भावना को 'गैर धार्मिक,  क्षेत्र के रूप में पहचान की जाती है जो मानव प्रकृति की लैंगिक आवेग की निम्न भावनाओं का भण्डार है,  पुरुषों के ज्ञान (धार्मिक) के रोशन दायरे के विचार के विपरीत है और धार्मिक सत्ता के एकमात्र जिम्मेदारों में से हैं। औरतों और उनकी सक्रिय लैंगिकता को सामाजिक और नैतिक अव्यवस्था,  बहकाए जाने के साधन और एक स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था के लिए खतरे के रूप में बनाया और देखा जाता है। इन सबने औरतों की यौन इच्छाओं को नियंत्रित करने की आवश्यकता के रूप में बाहरी सावधानियों जैसे पर्दा, अलग थलग रखा जाना,  लैंगिक रूप से अलग करने और लगातार निगरानी द्वारा अनिवार्य कर दिया। ये ध्यान देने योग्य है कि औरतों (और पुरुषों) के बारे में इस तरह के विचारों कई हदीसों में भी सामने आये हैं जिन्हें मध्यकालीन दृष्टिकोण को मानने वाले लोग मानक के तौर पर मानते हैं।

यहां पर कई प्रतिनिधि उदाहरण पेश हैं:

1. अबु सईद अलखुदरी रज़ियल्लाहु अन्हा से रवायत है कि नबी करीम (स.अ.व.) ने फ़रमाया है कि ... जब इस दुनिया का लालच आए तो एहतेयात करो, और ऐसे ही औरतों के मामले में जो पहला फ़ितना बनी इसराइल पर वाक़े हुआ वो (फ़ितना) औरत थी।

2. अब्दुल्ला बी. मसूद रज़ियल्लाहु अन्हा बताते हैं कि नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फरमाया, [सारी] औरतों औरह हैं और अगर वो बाहर जाती हैं तो शैतान उन्हें बहकाने का ज़रिया बनाता है।

3. अब्दुल्ला बी. उमर रज़ियल्लाहु अन्हा बताते हैं कि नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि, मैंने अपने लोगों में मर्दों के लिए औरतों के मुकाबले नुक्सानदेह फ़ितना को नहीं छोड़ा है।

कुरान की सूरः यूसुफ की भूमिका को भी यहाँ जोड़ा जाना चाहिए और खास तौर पर सार्वजनिक कहानियों में इसकी किस तरह व्याख्या और इसे कैसे पेश किया गया जो बाइबल की मशहूर कहानी मिस्र की औरतों के साथ जोसेफ की परीक्षा की कहानी को पेश करता है जिसमें उनकी चालाकी,  औरतों की वो यौन इच्छाएं जिन पर वो नियंत्रण नहीं कर सकती हैं,  उनको पूरा करने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार के तौर पर पेश किया गया है और इसकी मिसालों को को हर समय और हर जगह औऱ सभी औरतों के लिए आम की गई हैं।

5. पारंपरिक कुरानी व्याख्या में लैंगिक संबंध

पारंपरिक मुस्लिम कुरानी व्याख्या इस तरह की लैंगिक दर्जाबंदी करने वाली फिक्र को बखूबी ज़ाहिर करती है जो कुरान की आयत 4:34 और 2:228 की मध्यकालीन और कुछ आधुनिक तफ़सीरों में स्पष्ट है। मिसाल के तौर पर

अल-ज़मखशरी (d.1143/1144) आयत 4:34 के बारे में तफ्सीर

"मर्द (हक़ के) हाकिम और (बातिल को) माफ़ करने वाले हैं जिस तरह एक गवर्नर लोगों की रहनुमाई करता है, इनमें से कुछ लोग "कुछ" का मतलब सभी मर्द और सभी औरतों से लेते हैं।

इसका मतलब ये है कि मर्दों को औरतों पर संरक्षक बनाया गया क्योंकि खुदा ने इनमें से कुछ को बेहतर बनाया है और ये मर्द हैं और दूसरों के लिए ये औरतें हैं। ये सुबूत है कि प्रशासन का पात्र सिर्फ फजीलत के ज़रिए है न कि फौक़ियत, मोतकब्बेराना रवैय्या या महकूम बनाने के ज़रिया हैं। औरतों पर मर्दों की बरतरी के बारे में माहिरे तफ्सीर अक्ल, अच्छा फैसला,  अज़्म, ताक़त का हवाला देते हैं और मर्दों की अक्सरियत के लिए- घुड़सवारी,  तीरंदाज़ी,  क्योंकि मर्द ही पैगम्बर हैं, विद्वानो हैं,  उनकी ही ज़िम्मेदारी इमामत करने, जिहाद, नमाज़ की दावत, नमाज़े जुमाके खुत्बे, छुट्टियों के दौरान नमाज़ है। इमाम अबु हनीफा रहमतुल्लाह के मुताबिक वो चोट या मौत (हुदूद या कसास) के मामले में गवाही देते हैं, विरासत में उनका हक ज़्यादा है, एक हलफ का 50 बार ऐलान जो क़त्ल के मामले में जुर्म या मासूमियत को साबित करता है। शादी, तलाक और नाकाबिले रद्द तलाक के बाद भी बीवी से रुजू करने का अख्तियार होता है,  एक से ज़्यादा तादाद में बीवियाँ,  शजरए नस्ब मर्द से आगे बढ़ता है और उनके दाढ़ी और पगड़ी होती है"।

इब्ने कसीर (डी 1373)

आयत 2:228 के हवाले में कहते हैं कि ये आयत इस हक़ीक़त की ओर इशारा करती है कि शारीरिक रूप से मर्द औरतों के मुकाबले अधिक लाभदायक स्थिति में हैं,  उनकी आदाब परस्ती, इताअत (औरतों द्वारा उनकी), इखराजात, सभी मामलों की देखभाल और आमतौर पर उशकी ज़िंदगी में और परलोक में भी और इसे आयत 4:34 से जोड़ते हैं जिसका वो इस तरह अनुवाद करते हैं "मर्द औरतों के संरक्षक और व्यवस्थापक हैं, क्योंकि अल्लाह ने कुछ को कुछ पर फज़ीलत दी है और क्योंकि वह अपने माल में से (उनकी मदद) उन पर खर्च करते हैं।

 अल-तबरी (डी 923 सी ई)

अल-तबरी द्वारा की गयी आयत 4:34 की व्याख्या निम्नलिखित है:

"मर्द, औरतों पर कव्वामून हैं, खुदा का मतलब है कि मर्द औरतों के वली हैं ताकि वो उन्हें इताअत सिखा सकें और उन चीजों से बाज़ रख सकें जिन्हें खुदा ने औरतों और उन पर (मर्द) वाजिब किया है। खुदा ने बाज़ को बाज़ पर फज़ीलत दी है इसका मतलब है कि खुदा ने मर्दों को औरतों को महेर देने,  मर्द अपने माल में से औरतों पर खर्च करने और उनके लिए खर्च का नज्म करने के मामलों में बरतर बनाया है। यही वो फजीलत है जो ख़ुदा ने मर्दों को औरतों के मुकाबले में प्रदान की है और इसी के कारण मर्दों को औरतों का संरक्षक बनाया गया है,  और खुदा ने औरतों के जिन मामलों को मर्दों को प्रदान किया है उनमें मर्दों को उन पर हुक्म चलाने वाला बनाया गया है।

मौदूदी

आयत 4:34 के बारे में उनकी व्याख्या निम्नलिखित है:

मर्दों को औरतों पर इस बात में फज़ीलत है कि कुछ प्राकृतिक विशेषताओं और अधिकार प्रदान किए गए हैं जो औरतों को नहीं दिये गये है या कम दर्जे में दी गई हैं और इस बात में फज़ीलत नहीं है कि वो सम्मान और बरतरी के मामले में औरतों से ऊपर हैं। आदमी को उसकी प्राकृतिक विशेषताओं की वजह से परिवार को संरक्षक बनाया गया है और औरतों को उनकी प्राकृतिक कमियों की वजह से उनकी सुरक्षा के लिए उन्हें पुरुषों पर निर्भर बनाया गया है।

मियां बीवी दोनों के बीच संबंधों पर मध्यकालीन दृष्टिकोण की एक किस्म की मिसाल दक्षिण अफ्रीका के उलमा कौंसिल द्वारा जारी निम्नलिखित बयानों में पायी जा सकता है:

"उसे (पत्नी) खुद को दिलो जान से उसकी (मर्द) इच्छाओं और पसंद के अनुसार बदलना चाहिए। इस (मर्द) की पसंद इस (औरत) की पसंद और उसकी (मर्द) की नापसंद उसकी (औरत) की नापसंद बन जानी चाहिए। उसे (औरत) मर्द की तकलीफ़ और चिंताजनक स्थिति में शांति और तसल्ली प्रदान करनी चाहिए। उसकी तमन्नाएं और ख्वाहिशों उसकी (मर्द) इच्छा और आदेश से कमतर है .... आखिरकार खुदा ने उसे उसके शौहर के आराम और राहत के लिए पैदा किया है। कौंसिल आगे ये कहती है कि, 'शरीयत ने शौहर को उसकी बीवी पर सबसे आला दर्जे का अधिकार प्रदान किया है। इसी तरह बीवी अपने शौहर के लिए सब से आला दर्जे की इताअत का इज़हार करेगी ... अजज़ी और सब्र के साथ  वो उसकी कमियों और नाइंसाफियों को भी बर्दाश्त करेगी ... मर्दा औरतों के हुक्मराँ हैं और उनका आला दर्जा है...(जैसे) गलबा हासिल करना और हुक्म देना ये शौहर का हक़ और किरदार है (और) ये उसकी (बीवी) का फर्ज़ है कि वो उसकी इताअत और खिदमत करे। बीवी को ये समझने की कोशिश करनी चाहिए कि वो मुकाबले या खुद को उनके बराबर या बरतर बताने की कोशिश के द्वारा अपने शौहर को जीत नहीं सकती है।"

और

"ये बहुत अहम है कि बीवी अपने शौहर की संपत्ति की एकमात्र मालिक होने के बावजूद ... (उसको प्रोत्साहित किया जाता है) वो अपना दौलत शौहर की खुशी और जरूरत को पूरी करने के लिए हो। खुद को उसके वित्तीय मामलों को नियंत्रण करने वाले के रूप में स्थापित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। इससे उसका कोई लेना देना नहीं है कि उसका शौहर किस पर अपना माल खर्च करता है। 'अपने शौहर से से कानूनी अधिकार के पूरी तरह पूरा करने के लिए मांग करने के मामले में कानूनी रुख और तकनीकी रवैया नहीं अपनाना चाहिए .... बीवी को याद रखना चाहिए कि उसके शौहर द्वारा उसके प्रति दायित्वों को पूरा करने में नाकामी के बावजूद,  अपने शौहर की आज्ञा का पालन करना उसकी जिम्मेदारी है ... शौहर की इताअत इसके लिए लाज़वाल (अक्षय) खुशी को यक़ीनी बनायेगा।... "।

आखिर में,

"एक सच्ची मुसलमान बीवी की सबसे बड़ी नेकी अपने शौहर के प्रति उसकी वफ़ादारी है। उसका दिमाग, उसका दिल, उसकी नज़र, उसका शरीर सिर्फ शौहर के लिए है .... ये मुस्लिम बीवी को शोभा नहीं देता कि वो अपने शौहर के अलावा किसी दूसरे मर्द की तरफ नज़र उठाए ... यहां तक ​​कि किसी मर्द पर एक नज़र डालना भी कुफ़्र और बेवफाई का अमल माना जाता है ... मन में किसी दूसरे मर्द का ध्यान करना भी इस्लाम में कुफ्र है,  दूसरे मर्दों पर नजर डालना भी कुफ़्र है,  दूसरे आदमियों से बात करना कुफ्र है। शौहरों के लिए कुफ्र और बेवफाई बदकारी करने तक ही सीमित नहीं है।"

उपरोक्त सभी तशरीही सबूत में अक्सर प्राकृतिक कानून या लिंगों की प्राकृतिक विशेषताओं (शारीरिक रूप से मजबूत बनाम शारीरिक तौर पर कमज़ोर, अक्ल बनाम बेहद भावनात्मक) या कुछ सामाजिक, सांस्कृतिक विचारों के लिहाज से उचित मर्द / औरतों के अमल (महेर देने या लेने वाले, माली खर्च देने वाला या भौतिक सहायता प्राप्त करने वाला) और बर्ताव (पुरुषों की प्रकृति बनाम औरतों की लैंगिकता) के परिणामस्वरूप आयत 4:34 और 2:228 के पुरुष प्रधान कुरानी तफ़सीर की तशकील पाई और मध्यकालीन इस्लामी परिवार कानून की बुनियादों को बनाता है।

इसलिए मध्यकालीन इस्लामी कानून में बहुत लैंगिक भेदभाव हैं जो विशेष रूप से मुस्लिम फैमिला लॉ की प्रकृति पर प्रभाव डालता है,  क्योंकि ये लैंगिक भेदभाव शौहर और बीवी के अधिकार और दायित्वों पर लागू होते हैं और इसके इन पर प्रभाव हैं। मिसाल के तौर पर, पारंपरिक मुस्लिम शादी कानून के अनुसार ये बीवी की धार्मिक और कानूनी जिम्मेदारी है कि वो लगातार पति की यौन आवश्यकताओं के लिए उपस्थित रहे और वो भी इस हद तक इसके यौन अंगों पर शौहर का स्वामित्व है और उसे कहीं भी जाने की इजाज़त नहीं है (यहाँ तक कि वो अपने शौहर की इजाज़त के बिना अपने बीमार पिता के घर नहीं जा सकती है क्योंकि शौहर को यौन संबंध स्थापित करने की आवश्यकता हो सकती है)। बदले में शौहर कानूनी रूप से अपनी बीवी के लिए भौतिक आवश्यकताओं को प्रदान करने और शादी के समय महेर (जिसका एक हिस्सा बाद में दिया जा सकता है) प्रदान करना अनिवार्य है। बीवी कानूनी तौर पर यौन संतोष प्राप्त करने का कोई अधिकार स्वीकार नहीं किया गया है। बीवी यदि शौहर की इच्छा पर यौन आवश्यकताओं पूरा करने के लिए मौजूद नहीं है तो वह अपने भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने से वंचित हो जाएगी।

डॉ. अदिस दुदरीजा, मेलबर्न विश्वविद्यालय के इस्लामिक स्टडीज़ विभाग में रिसर्च एसोसिएट हैं।

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