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Hindi Section ( 25 Jun 2014, NewAgeIslam.Com)

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Islamic Identity and Unity in Danger in Iraq इराक़ में इस्लामी पहचान और एकता खतरे में

 

आफ़ताब अहमद, न्यु एज इस्लाम

23 जून, 2014

इराक़ में दौलते इस्लाम इराक़ व शाम (सीरिया) नाम के सैन्य संगठन की इराक़ की राजधानी बग़दाद की तरफ विजयी अभियान जारी है। मौसूल, तिकरित, रक़्क़ा, आना सीमावर्ती राजमार्गों समेत इराक़ के कई शहरों और क़स्बों को इसने अपने क़ब्ज़े में ले लिया है। इसने बेजी की तेल रिफ़ाइनरी पर भी क़ब्ज़ा कर लिया है। इराक़ के सैन्य अधिकारी जो सुन्नी समुदाय के हैं वो विद्रोहियों से मिल गए हैं। अधिकृत क्षेत्रों की सुन्नी जनता भी उनके साथ है जिसकी वजह से उन्हें इस क्षेत्र में किसी प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ रहा है। इराक़ के शिया राष्ट्रपति नूरी अलमालिकी के पास इस स्थिति और सुन्नी विद्रोही संगठन से निपटने के लिए कोई स्पष्ट फार्मूला नहीं है। वो केवल अमेरिका के सैन्य हस्तक्षेप पर आस लगाए बैठे हैं जबकि अमेरिका जो खुद इस वक्त आर्थिक दीवालिएपन के दौर से गुज़र रहा है, लड़ाई झगड़े के या तो मूड में नहीं है या फिर सैन्य हस्तक्षेप के व्यापक परिणाम के डर से असमंजस में है।

जब उसने सद्दाम हुसैन के दौर में इराक़ में सैन्य हस्तक्षेप किया था उस वक्त उसने विश्व जनमत और संयुक्त राष्ट्र को अपने पक्ष में कर लिया था और सारी दुनिया को इराक़ के खिलाफ अपने मिशन में समर्थक बना लिया था, मगर अब हालात बदल चुके हैं। अब आतंकवाद के खिलाफ युद्ध की दुहाई देकर दुनिया को मूर्ख बनाना उसके लिए सम्भव नहीं रह गया है। पिछले साल जब उसने रासायनिक हथियार की सीरिया में उपस्थिति के बहाने से सीरिया में शिया राष्ट्रपति बशर अलअसद का तख्ता पलटने की कोशिश की थी तो रूस के राष्ट्रपति पुतिन विरोध में सामने आ गए थे और धमकी दी थी कि अगर अमेरिका ने सीरिया पर हमला किया तो उसे रूस से टकराना होगा। उसने सऊदी अरब को भी धमकी दी थी कि अगर सीरिया पर हमला हुआ तो रूस सऊदी अरब पर हमला करेगा क्योंकि सीरिया में सक्रिय लड़ाकों को सऊदी अरब मदद पहुँचा रहा था। रूस की इन धमकियों की वजह से अमेरिका को सीरिया पर हमले का इरादा छोड़ना पड़ा।

सीरिया के खिलाफ सऊदी अरब, क़तर और अमेरिका की बेचैनी का कारण केवल पंथीय नहीं है क्योंकि अमेरिका को इस्लामी पंथ से क्या लेना देना। दरअसल रूस का सीरिया के साथ दशकों से सैन्य और आर्थिक समझौता है और ये समझौता इस क्षेत्र में सऊदी- क़तर और अमेरिकी हितों के खिलाफ है। इसलिए बशर अलअसद के खिलाफ अमेरिका और अरब देशों का ये अभियान पंथ से ज़्यादा आर्थिक और सैन्य है। सऊदी अरब और अमेरिका ने इस क्षेत्रीय लड़ाई को सफल बनाने के लिए इसे पंथीय रंग देने की कोशिश की जिसमें वो सफल भी रहे।

विभिन्न सुन्नी उलमा ने पूरी दुनिया के सुन्नियों को इस 'जिहाद' में शामिल होने का फतवा भी जारी किया जिसमें एक फतवा अल्लामा अलक़रज़ावी का भी है। बहरहाल रूस के हस्तक्षेप से सीरिया पर छाया हुआ खतरा तो टल गया लेकिन ''मुजाहिदीन' को जो प्रशिक्षण जॉर्डन और तुर्की के खुफिया प्रशिक्षण स्थलों में दी गई थी उसे इराक़ में काम में लगाया गया। अगर आने वाली रिपोर्टें विश्वसनीय स्रोतों से आई हैं तो आईएसआईएस के लड़ाकों को जॉर्डन के शिविरों में अमेरिका ने प्रशिक्षण दिया है और इसके लिए फंड सऊदी अरब और क़तर ने प्रदान किए हैं। गौरतलब है कि पिछले साल क़तर ने अपने यहां तालिबान को अपना कार्यालय खोलने की इजाज़त दी थी। यही कारण है कि अमेरिका इराक़ में न सिर्फ अपनी सेना भेजना नहीं चाहता बल्कि वो नूरी अलमालिकी को सत्ता में देखना भी नहीं चाहता और ओबामा ने इस बात का संकेत भी दे दिया है।

नूरी अलमालिकी से अमेरिका की नाखुशी की वजह ये है कि सत्ता में आने के बाद उन्होंने सेना और ब्युरोक्रेसी में सुन्नियों को हटाकर शियों को भर्ती करना शुरू कर दिया। सद्दाम हुसैन के ज़माने में सुनी सद्दाम ने शिया बहुल इस देश में सेना और ब्यूरोक्रेसी में सुन्नियों को प्रतिनिधित्व दिया था और शिया बहुमत में होते हुए भी अल्पसंख्यक थे। नूरी अलमालिकी ने अपने कार्यकाल में सेना और प्रशासन में शियों को प्राथमिकता वाली पोज़ीशन देनी शुरू की जिससे एक तरफ तो सुन्नी आबादी में बेचैनी शुरू हुई दूसरी ओर सऊदी अरब, क़तर और दूसरे सुन्नी अरब देशों और अमेरिका को भी चिंता होने लगी क्योंकि इस क्षेत्र में शिया देशों की शक्ति में वृद्धि होने लगी थी और इसका मतलब था कि क्षेत्र में ईरान के प्रभाव में वृद्धि। क्योंकि अब तक तो केवल सीरिया और ईरान ही शिया देश थे मगर नूरी अलमालिकी के शासनकाल में इराक़ भी शिया देश में पूरी तरह से बदल चुका था जिसके लिए ज़रूरी था कि इराक़ में बलपूर्वक शिया ताक़त को रोका जाए। इसलिए जो प्रशिक्षण और सैन्य संसाधन बशर अलअसद के खिलाफ तैयार और जमा किए गए थे और जो किसी कारणवश इसके खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जा सके, उन्हें इराक़ के खिलाफ लगा दिया गया।

ओबामा का इस बात पर ज़ोर है कि नूरी अलमालिकी इराक़ के सभी वर्गों को सरकार और सेना में बराबर प्रतिनिधित्व दें, ये इसी एजेंडे की तरफ इशारा करता है। अमेरिका नहीं चाहता कि इराक़ भी सीरिया की तरह पूरी तरह शिया देश बन जाए क्योंकि इससे ईरान की शक्ति और बढ़ेगी जो पहले से ही उसके लिए कष्टकारी बना हुआ है।

अगर आईएसआईएस इराक़ पर क़ब्ज़ा कर लेता है जिसकी सम्भावना को खारिज नहीं किया जा सकता है, तो कहानी यहीं पर खत्म नहीं होगी क्योंकि आईएसआईएस का अगला लक्ष्य बशर अलअसद ही होंगे। उस समय आईएसआईएस के पास इराक़ की पूरी सेना और सभी सैन्य संसाधन होंगे और वो अपनी पूरी ताकत से बशर अलअसद के खिलाफ युद्ध का मोर्चा खोलेगा। और यही अमेरिका और सऊदी अरब- क़तर का उद्देश्य है। अभी तो ईरान ने भी इराक़ में अमेरिकी हस्तक्षेप का विरोध किया है। शायद ईरान समझता है कि बिना अमेरिका के हस्तक्षेप के आईएसआईएस नूरी अलमालिकी का तख्ता नहीं उलट सकता और इराक़ के शिया लड़ाके और जनता आईएसआईएस का मुक़ाबला करने और इसे रोकने में सक्षम हैं।

ऐसी खबरें आ रही हैं कि बगदाद और आसपास के क्षेत्रों में शिया और कुर्दों ने आईएसआईएस के अभियान को रोकने के लिए शहादत की क़सम ले ली है और वो पवित्र स्थानों की रक्षा के लिए अपनी जानों पर खेल जाएंगे। ईरान ने भी संकेत दिया है कि अगर इराक़ के पवित्र स्थलों को विद्रोहियों ने नुकसान पहुंचाने की कोशिश की तो वो चुप नहीं बैठेगा। इन परिस्थितियों में इराक़ एक खतरनाक गृहयुद्ध के कगार पर खड़ा दिखाई देता है। लेकिन ये सवाल भी उठता है कि जिन क्षेत्रों में लड़ाकों ने क़ब्ज़ा किया है वहाँ शिया लोगों ने कोई प्रतिरोध क्यों नहीं किया।

एक दशक पहले जॉर्ज बुश ने इराक़ में रासायनिक हथियारों की मौजूदगी और अलकायदा से सद्दाम हुसैन के सम्बंधों के बहाने इराक़ को तबाह कर दिया था और सद्दाम हुसैन को फांसी पर लटका दिया था। लेकिन आज उसी अलक़ायदा की एक शाखा ने इराक़ पर न केवल हमला किया है बल्कि उस पर क़ब्ज़ा जमाने के क़रीब है और वो ऐसा अमेरिकी मदद के बल बूते पर कर रहा। इससे आतंकवाद पर अमेरिकी पाखंड पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है। आज इराक़ के सैनिकों से लेकर जनता तक इन विद्रोहियों के समर्थन में निकल पड़े हैं तो इसमें खुद अमेरिका की पाखंड पर आधारित नीतियों की बड़ी भूमिका है।

अमेरिका ने अरब और फारस की खाड़ी में जिस गंदी राजनीति का पालन किया है और इस क्षेत्र को सैन्य, आर्थिक और सामाजिक रूप से जितना तबाह किया है इसकी वजह से वहां की जनता अमेरिकी नीतियों से नाराज़ और परेशान हो चुकी है और वो इस क्षेत्र में ऐसी सरकार चाहते हैं जो अमेरिकी प्रभाव से मुक्त हो ताकि वो बिगड़ी हुई तक़दीर को अपने हाथों से संवार सकें और इसके लिए वो हर उस शक्ति का साथ देने को तैयार हैं जो अमेरिका की चौधराहट को चुनौती दे सके। यही कारण है कि उन्होंने आईएसआईएस जैसी तकफीरी (अपने से अलग सभी को काफिर बताने का विचार) संगठन को समर्थन दिया है।

दूसरी ओर नूरी अलमालिकी की सरकार के पंथीय भेदभाव ने भी सुन्नियों को इससे परेशान और विद्रोही संगठनों के करीब  कर दिया है। ये इराक़ के लिए अच्छा शगुन नहीं है क्योंकि इस विद्रोही संगठन का इराक़ में सत्ता में आना इस्लाम के लिए पंथीय गृहयुद्ध की भूमिका साबित होगा। सत्ता में आने के बाद उसका पहला निशाना पवित्र स्थान होंगे जो केवल शियों के लिए ही नहीं बल्कि सभी मुसलमानों के लिए सम्मान के लायक़ है और इस्लाम की सांस्कृतिक पहचान के स्रोत हैं और इनको पहुँचने वाला छोटा सा भी नुकसान पूरी इस्लामी समुदाय के लिए बेचैनी पैदा करने वाला होगा।

विशेषकर ईरान इस घटना को बर्दाश्त नहीं करेगा और इस तरह से ये क्षेत्र पंथीय युद्ध की चपेट में आ जाएगा और इसकी आग में नाटो देश अपने हाथ सेंकेगे। समय रहते इस्लामी देशों आने वाले खतरे से बचने का कोई रास्ता निकाल लें तो ये न केवल इस क्षेत्र के लिए बल्कि पूरी इस्लामी दुनिया के लिए फायदेमंद होगा वरना उन्हें ये याद रखना चाहिए कि ओबामा याजूज और माजूज के इस टोले के मुखिया हैं जो इस क्षेत्र की नदियों के पानी की आखरी बूँद तक को इस तरह पी लेगा कि लोग इसकी रेत को देखकर कहेंगे कि शायद कभी यहां कोई नदी बहती थी।

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