चेतन भगत
1 नवम्बर, 2013
आम तौर पर लोग धर्म पर लेख लिखने को लेकर आशंकित रहते हैं। ज़्यादातर हिंदुस्तानी गलत व्याख्या के डर से सार्वजनिक स्थानों पर इस मुद्दे पर चर्चा नहीं करते। इस मामले पर सिर्फ भावुक चरमपंथी ही बात करते हैं। नतीजतन, हमारे समाज में हमारे धर्म को चरमपंथी कण्ट्रोल करते हैं, और राजनीति इसमें मदद करती है।
और इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण धार्मिक मामलों को नज़रअंदाज़ किया जाता है। ऐसा ही एक मुद्दा आधुनिक समाज में अपने धर्म की व्याख्या और उसके स्थान को लेकर नौजवानों के मन में पाया जाने वाला भ्रम है।
शुरुआत हिन्दू धर्म से करते हैं। हिन्दुओं में एक समुदाय ऐसा है जो ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए अपने अंग भंग करने में विश्वास रखते हैं। वो अपने गालों में भाला भोंक लेते हैं। ये लोग धातु के हुक को अपनी पीठ में फंसा कर रथ को खींचते हैं। हिन्दू साधु सन्यासी का जीवन बिताते हैं।
जबकि करोड़ों हिन्दू सिर्फ कभी कभी ही मंदिर जाते हैं। वो भगवान में विश्वास करते हैं। हालांकि वो हिंदू धर्म की पवित्र किताबों में दिये गये दिशा निर्देशों को न तो जानते हैं और न ही उनका पालन करते हैं। कई हिंदू मांस खाते हैं और शराब पीते हैं लेकिन वो भगवान की पूजा करते हैं और सभी प्रमुख त्योहारों को भी मनाते हैं।
इसलिए सवाल ये पैदा होता है कि- हिन्दू कौन हैं? क्या गालों में भाला भोंकने वाला भक्त मानदण्ड है? क्या एक साधु आदर्श हिन्दू है? या मध्यम वर्ग का वो व्यक्ति जो बैंक में काम करता है, जो मुर्गा खाता है, बियर पीता है और कभी कभी मंदिर जाता है, वो भी एक अच्छा हिन्दू है?
जाहिर है कि इनका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं है। ऊपर दी गयी मिसालों में प्रत्येक व्यक्ति हिंदू है। इसलिए भारत में हिंदू होने का क्या मतलब है? हम सिर्फ अनुमान लगा सकते हैं, लेकिन यहाँ आधुनिक हिंदू मूल्यों की सूची के लिए एक कोशिश है।
आधुनिक हिंदू हिंदू देवी- देवताओं की पूजा करते हैं और कुछ हिंदू त्योहारों को मनाते हैं। वो कम से कम कुछ हिंदू दिनचर्या का पालन करते हैं, जो लोगों के लिए अलग अलग हो सकता है। वो अपने विश्वासों और अनुष्ठानों को दूसरों पर नहीं थोपता और दूसरों के विश्वासों के प्रति सहिष्णु होता है। वो हमारी पवित्र किताबों में मौजूद लिंग असमानता, जातिगत भेदभाव और हिंसा की और इशारा करने वाले प्रतिगामी सिद्धांतों को नज़र अंदाज़ करता है।
उपरोक्त सूचि न तो संपूर्ण है और न ही सही है, क्योंकि हमने कभी भी बौद्धिक रूप से इस बात पर चर्चा ही नहीं की है कि इक्कीसवीं सदी के हिन्दुस्तान में हिन्दू होने का मतलब क्या है। काफी विचार विमर्श के बाद ही अंतिम सूचि तैयार की जा सकती है। हालांकि एक ऐसी सूचि की ज़रूरत है, क्योंकि ये हमारे समाज में धर्म के स्थान को लेकर व्यावहारिक आम सहमति बनाने की कोशिश करता है।
हमें ये भी सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि ये सूचि न केवल धार्मिक आदेशों को बल्कि ये सामूहिक रूप से देश की आकांक्षाओं और विकास को भी अपने में समाहित करे। मिसाल के लिए अगर हम 16वीं सदी के कट्टर रूढ़िवादी हिंदू धर्म की तरफ जायेंगें तो ये हमें आज की ग्लोब्लाइज़्ड (वैश्विकृत) दुनिया का हिस्सा बनने से रोकेगा।
दूसरे धर्मों के लिए भी इसी तरह के विचार विमर्श और मूल्यों की एक सूचि तैयार करने की ज़रूरत है, विशेष रूप से भारत के दूसरे महत्वपूर्ण धर्म इस्लाम के बारे में हमें ऐसा करने की ज़रूरत है। इस दुनिया में लगभग 50 देश ऐसे हैं जहां मुसलमान बहुमत में हैं। हालांकि, इनमें इस्लाम की कोई एक व्याख्या नहीं पाई जाती।
मिसाल के लिए सऊदी अरब को ही ले लें, जहां 97 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। सऊदी अरब की कानूनी व्यवस्था किसी अलग संविधान पर नहीं चलती है बल्कि ये शरई कानून की कट्टर और रुढ़िवादी व्याख्या पर आधारित है। औरतों को सार्वजनिक स्थानों पर पर्दा करना, एक औरत की गवाही का कानूनन विश्वसनीय न होना, (या मर्दों की तुलना में इसका महत्व कम होना) और कई तरह के अपराधों के इल्ज़ाम में सिर कलम करने, कोड़ा मारने और संगसार (पत्थरों से मारना) करने जैसी सज़ा सऊदी कानून के उदाहरण हैं।
कानून को सख्ती के साथ लागू किया जाता है। एक सऊदी स्कूल में आग लगने के मामले में आग बुझाने वाले कर्मियों ने कथित तौर पर लड़कियों को सिर्फ इस वजह से आग लगी इमारत से बाहर नहीं निकलने दिया क्योंकि उन्होंने उचित कपड़े नहीं पहने थे। इसमें कई लड़कियों की मौत हो गयी। बहुत सारे लोगों ने सऊदी सिस्टम की आलोचना की जबकि कुछ लोग वहाँ अपराध कम होने के लिए उसकी सराहना की।
आइए एक और मिसाल के तौर पर तुर्की को लें। यूरोपीय संघ की सदस्यता हासिल करने की होड़ में तुर्की ने अपने नागरिकों की निजी स्वतंत्रता में रिआयत दी है। वहाँ धर्म और राजनीति अलग अलग हैं। एक सेकुलर संविधान तुर्की की कानूनी व्यवस्था को चलाता है। हैरान करने वाली बात ये है कि यहाँ की 99 प्रतिशत आबादी के मुस्लिम होने के बावजूद विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक व सरकारी इमारतों में हिजाब पहनना वर्जित है (हालांकि वर्तमान समय में इसमें कुछ छूट दी गई है) जबकि कुछ लोग इसे धर्म के प्रतीक के रूप में देखते हैं, जिसे राज्य संस्थानों से अलग रखने की ज़रूरत है।
दूसरे मुस्लिम बहुल देशों ने बीच का रास्ता अपनाया हुआ है। मलेशिया कुछ हद उदार है लेकिन ईरान ऐसा नहीं है जबकि पाकिस्तान ने बीच का रास्ता अपनाया हुआ है। ये सभी हमारे मन में वही सवाल पैदा करते हैं कि ऊपर दी गयी मिसालों में से कौन अधिक या कम मुसलमान है?
जाहिर है कि इसका भी कोई सही जवाब नहीं है। हम ये जानते हैं कि तुर्की का मुसलमान एक सऊदी मुसलमान से अलग व्यवहार की आशा की जाती है। इसलिए हमें ये सवाल करने दें कि एक भारतीय मुसलमान से कैसा होने की उम्मीद की जानी चाहिए? क्या भारतीय मुसलमान, तुर्की के मुसलमान, सऊदी के मुसलमान के जैसा होना चाहिए या उन्हें बीच का रास्ता अपनाना चाहिए?
मैं इसका कोई जवाब देने की कोशिश नहीं करूंगा क्योंकि ये मेरा काम नहीं है। इसका जवाब समुदाय से ही आयेगा। मैं इसका जवाब दे रहा हूँ कि, हम भारतीय समाज को कहां ले जाना चाहते हैं? क्या हम विकास करना चाहते है और एक ऐसे देश का निर्माण करना चाहते हैं जहां हमारे युवा अपनी आकांक्षाओं को पूरा कर सकें? क्या हमें अपने धर्मग्रंथों की प्रतिगामी और हिंसक व्याख्याओं से कोई तकलीफ नहीं होती है? या ऐसा करना ठीक है कि अगर हम अपने समाज के लिए जो सबसे सही है उसको चुनें?
इस तरह की बहस की ज़रूरत है, लेकिन अफसोस की बात है कि फूट डालने वाले हमारे राजनीतिज्ञ ऐसी चर्चाओं को हतोत्साहित करते हैं। भारत को प्रभावित करने वाले और बुद्धिजीवी और सभी धर्मों के वो लोग जिन्हें समाज की फिक्र है, ऐसे लोगों को बात करनी चाहिए और इन मामलों को हल करना चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो कट्टरपंथी लोग धार्मिक बहस और चर्चाओं को हाईजैक कर लेंगे और फूट डालने वाले राजनीतिज्ञ इस भ्रम से फायदा उठाते रहेंगे और देश का नुकसान होता रहेगा।
स्रोत: http://blogs.timesofindia.indiatimes.com/The-underage-optimist/entry/being_hindu_indian_or_muslim_indian
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