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Hindi Section ( 31 March 2014, NewAgeIslam.Com)

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What will be the Duration of a Possible Peace संभावित शांति की अवधि क्या होगी?

 

 

 

 

मुजाहिद हुसैन, न्यु एज इस्लाम

30 मार्च, 2014

तालिबान के साथ बातचीत में शामिल दर्दे दिल वाले लोग इस बात से बिल्कुल परिचित नहीं कि तालिबान जंग और मार काट का समर्थक ऐसा लश्कर है जिसमें उन सभी लड़ाकों को शामिल किया गया है जो अपने अपने क्षेत्रों में अराजकता फैलाने और दूसरे सामाजिक अपराध में शामिल रहे हैं और उन्होंने राज्य के खिलाफ लड़ने वाले समूहों को इसलिए पसंद किया कि वो किसी भी प्रकार की पूछताछ या जवाबदेही से मुक्त हो सकें। इसमें कोई शक नहीं कि लड़ाई के आदी इन लोगों में ऐसे लोगों की भरमार है जो फिरौती के लिए अपहरण, नशीले पदार्थों की बिक्री और दूसरे अपराधों से जुड़े रहे हैं और उनके लिए अपने आवासीय क्षेत्रों में किसी प्रकार की सम्मानजनक वापसी की संभावना बहुत कम हैं, क्योंकि कबायली परम्पराओं में बदला और सज़ा के रूप में नकद भुगतान को कुछ समय के लिए टाला तो जा सकता है, लेकिन इसे स्थायी मुक्ति हासिल नहीं है।

हम ने चूंकि लड़ाई के आदी इन लोगों को धार्मिक सम्बंध में पक्के विश्वास वाले होने का एकतरफ़ा प्रमाणपत्र दे दिया है इसलिए हम उन्हें सूफी सिफ़त और शरीयत के चाहने वालों के अलावा किसी दूसरी दृष्टि से देखने के लिए तैयार ही नहीं।  उदाहरण के लिए हमारे ये लोग पूर्व गवर्नर सलमान तासीर और पूर्व प्रधानमंत्री गिलानी के बेटों को इसलिए मुफ्त में रिहा नहीं कर सकते क्योंकि वो अगवा किये गये लोगों का मुआवज़ा चाहते हैं। जिन्होंने ऐसे अपहरण के लिए मेहनत की और फिर उन्हें फिरौती की चाहत में सुरक्षित रखा। अब वो सिर्फ ऐसी बातचीत के लिए उन्हें केवल सद्भावना के तहत रिहा कर दें, जिनकी कामयाबी के बारे में अनगिनत सवाल खड़े हैं। इसलिए अभी से खुश होने की ज़रूरत नहीं ये तो सिर्फ शुरुआत है आगे आगे देखिए क्या होता और किस प्रकार की मांगों को स्वीकार किए जाने के लिए पेश किया जाता है।

असल समस्या सरकार के साथ है जो इस सम्बंध में एकाग्रता के अभाव का शिकार है और किसी न किसी तरह ये घोषणा करना चाहती है कि तालिबान ने राज्य के खिलाफ न लड़ने का वादा कर लिया है। अभी तक पाकिस्तानी जनता को ये नहीं बताया गया कि सरकार तालिबान को स्थायी युद्ध विराम की घोषणा के बदले में क्या देगी। उनके लिए आम माफी का एलान करेगी या उनसे ऐसे लोगों के प्रत्यर्पण की मांग करेगी जो राज्य की सुरक्षा एजेंसियों के खिलाफ लड़ रहे हैं और राज्य को अपूर्णनीय क्षति पहुँचा चुके हैं और उन्हें राज्य की संस्थाएं न केवल पहचान चुकी हैं बल्कि उनके बारे पूरा विवरण भी सुरक्षित है। हालांकि द्विपक्षीय तौर पर खुशखबरियों के संदेश की गूंज सुनाई दे रही है और ये संदेश दिया जा रहा है कि सब अच्छा होने को है लेकिन इस सम्बंध में विवरणों का पर्दे के पीछे रहना, किसी सामूहिक धोखाधड़ी का स्पष्ट संकेत कर रहा है।

मिसाल के तौर पर स्वात के सूफी मोहम्मद के साथ पिछली 'सफल' बातचीत के अंत में हम सब खुश थे लेकिन थोड़े ही दिनों के बाद ही सूफी मोहम्मद ने राज्य की संस्थाओं के गैर इस्लामी होने का दावा करके हमारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया और अनिवार्य रूप से सूफी मोहम्मद की जाँच करनी पड़ी। जो हमें मँहगा भी पड़ा जबकि इसके बाद हमारी राष्ट्रीय समस्याएं न केवल बढ़ी बल्कि सशस्त्र गिरोह और ज्यादा एकजुट होकर राज्य के खिलाफ लड़ने लगे। अब उसी सूफी मोहम्मद का दामाद तालिबान का अमीर (प्रमुख) है और हम एक बार फिर उसी दरवाज़े पर याचना कर रहे हैं।

हमारी सबसे प्रमुख समस्या पहचान की है जिसको धुँधला करने में जहां अनगिनत पात्रों का हाथ है वहाँ हमारी सामूहिक याददाश्त की चूक भी मौजूद है। हमारे यहाँ यादों को भूलाने के लिए 'बाहरी हाथ' के चूरन का प्रयोग किया जाता है जिसके बाद हमारी ज़बरदस्त और उच्च संस्थाएं 'अच्छे' और 'बुरे' के भेद को उजागर करने के लिए दूसरे प्रकार की कोशिशों में व्यस्त हो जाती हैं और अभी वो इस प्रकार के विभाजन को कोई स्पष्ट रूप नहीं दे पाए होते कि सब अच्छे बुरे मिलकर राज्य का घेराव कर लेते हैं। अफगानिस्तान के बारे में अगर हमारी राष्ट्रीय याददाश्त अभी पूरी तरह खत्म न हो पाई हो तो ये पूछा जा सकता है कि हिकमतयार गुलबुद्दीन कब बहुत अच्छा था और कब वो हमारे लिए नफरत के काबिल बन गया? जलालुद्दीन हक्कानी कब हमारे पक्ष में बेहतर था और कब उससे किनारा कर लेने में हमारी बेहतरी थी? कब मुल्ला फ़क़ीर मोहम्मद देशभक्त था और कब मुल्ला फज़लुल्लाह भी ये प्रमाण हासिल करता है। राष्ट्रीय समस्याओं की व्यापक प्रदर्शनी में हमारे यहां तरह तरह के नमूने पाए जाते हैं।

जो बात बिल्कुल स्पष्ट है और जिससे बचना सम्भव नहीं, वो ये है कि वर्तमान सत्ताधारी दल देश में शांति तो चाहता है लेकिन उसकी प्राथमिकता केवल उस समय तक शांति बनाये रखना है जब तक वो सत्ता में है। ये सरकार के प्रदर्शन को बेहतर साबित करने की इच्छा तो हो सकती है, देश में स्थायी शांति के लिए वास्तविक कोशिश नहीं। इसको पंजाब के मुख्यमंत्री ने अपनी पहली अवधि में अच्छी तरह व्यक्त कर दिया था जब उन्होंने आतंकवादियों से पंजाब प्रांत में कार्रवाई न करने की अपील की थी। अगर अब भी देखा जाए तो अभी तक पंजाब को प्रत्यक्ष रूप से आतंकवाद की किसी बड़ी वारदात का सामना नहीं करना पड़ा जबकि ख़ैबर पख्तूनख्वाह और सिंध जहां मुस्लिम लीग नवाज़ सत्ता में नहीं  है, आतंकवादियों के हमले का शिकार हैं। जैसा पंजाब और केंद्र को दूसरे राज्यों की तरफ से एक ही पलड़े में रख कर देखा जाता है, अगर इस कल्पना को थोड़ी देर के लिए उधार ले लिया जाए तो दोनों आपस में जुड़ी समझी जाने वाली इकाईयों यानी केंद्र और पंजाब को प्रत्यक्ष रूप से किसी बड़े खतरे का सामना नहीं। इसकी वजह साफ है कि केंद्र और पंजाब में सत्तारूढ़ पार्टी आतंकवादियों के साथ किसी प्रत्यक्ष विवाद का शिकार नहीं हैं और न ही मुस्लिम लीगी नेतृत्व में से किसी को इस बारे में निशाना बनाया गया है जबकि तहरीके इंसाफ, पीपुल्स पार्टी और एम.क्यू.एम. के कई कार्यकर्ता आतंकवादी हमलों में मारे गए हैं। इससे पहले खैबर पख्तूनख्वाह में सत्तारूढ़ अवामी नेशनल पार्टी के कार्यकर्ताओं की बड़ी संख्या आतंकवादियों के हाथों मारी जा चुकी है।

अगर संघीय सरकार ऐसी बातचीत के माध्यम से देश में सामूहिक रूप से शांति की स्थिति को बेहतर बनाने में कामयाब हो जाती है, जो सशस्त्र उग्रवादियों और सांप्रदायिक ताकतों को एक निश्चित अवधि के लिए संघर्ष विराम के लिए तैयार कर लेते हैं तो स्पष्ट रूप से इसे एक सफलता के रूप में देखा जाएगा लेकिन राज्य के लिए एक खतरा बरकरार रहेगा जो किसी भी वक्त उभर सकता है। क्योंकि सरकार की तरफ से बातचीत के लिए जिस नम्रता का प्रदर्शन किया जा रहा है, उससे पता चलता है कि आतंकवादियों को कुछ मामलों में ढील देकर कुछ समय के लिए संघर्ष विराम के लिए तैयार तो किया जा सकता है, उन्हें निशस्त्र और कमज़ोर नहीं किया जा सकता। लेकिन दूसरी तरफ अफगानिस्तान में नज़र आने वाली विदेशी सेना की वापसी कबायली पट्टी में सक्रिय आतंकियों को ज़रूर प्रेरित करेगा कि वो न केवल अफगानिस्तान में सत्ता के लिए प्रयासरत लड़ाकों को सहायता प्रदान करें बल्कि सीमा के उस पार मौजूद अपने पारम्परिक हमदर्दों और साथियों को और अधिक ताक़तवर बनाने के लिए उनकी मदद करें। ये एक ऐसा मौका है जो पाकिस्तान के लिए निर्णायक रणनीति की अपेक्षा रखता है ताकि उसके शहरों और प्रशासित क्षेत्रों में शांति स्थापित रहने की अवधि को निर्धारित किया जा सके और भविष्य के बारे में कोई राय कायम की जा सके कि बातचीत के बाद अस्तित्व में आने वाली शांति अस्थायी है या स्थायी?

मुजाहिद हुसैन ब्रसेल्स में न्यु एज इस्लाम के ब्युरो चीफ हैं। वो हाल ही में लिखी "पंजाबी तालिबान" सहित नौ पुस्तकों के लेखक हैं। वो लगभग दो दशकों से इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट के तौर पर मशहूर अखबारों में लिख रहे हैं। उनके लेख पाकिस्तान के राजनीतिक और सामाजिक अस्तित्व, और इसके अपने गठन के फौरन बाद से ही मुश्किल दौर से गुजरने से सम्बंधित क्षेत्रों को व्यापक रुप से शामिल करते हैं। हाल के वर्षों में स्थानीय,क्षेत्रीय और वैश्विक आतंकवाद और सुरक्षा से संबंधित मुद्दे इनके अध्ययन के विशेष क्षेत्र रहे है। मुजाहिद हुसैन के पाकिस्तान और विदेशों के संजीदा हल्कों में काफी पाठक हैं। स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग की सोच में विश्वास रखने वाले लेखक मुजाहिद हुसैन, बड़े पैमाने पर तब्कों, देशों और इंसानियत को पेश चुनौतियों का ईमानदाराना तौर पर विश्लेषण पेश करते हैं।

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