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Hindi Section ( 26 Nov 2013, NewAgeIslam.Com)

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Serious Social Effects of Burqa in New Britain आधुनिक ब्रिटेन में बुर्क़ा के गंभीर सामाजिक प्रभाव

 

मजीद अनवर

22 नवम्बर, 2013

जुलाई 2007 में पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में घेरे में ली गयी लाल मस्जिद के लीडर अब्दुल अज़ीज़ ग़ाज़ी ने बुर्क़ा पहनकर भागने की कोशिश की। पाकिस्तानी सुरक्षा बल ने जिनमें बहुसंख्यक मुसलमान हैं पहचान के उद्देश्य के लिए चेहरे से नक़ाब हटाने की मांग करते समय किसी (सांस्कृतिक संवेदनशीलता) को व्यक्त नहीं किया और ग़ाज़ी गिरफ्तार कर लिए गए। इसी साल के दौरान 21/7 को आतंकवादी सेल के एक सदस्य यासीन उमर ने लंदन ट्रांस्पोर्ट सिस्टम को बम से उड़ाने की कोशिश की थी। कुछ दिन बाद बर्मिंघम में गिरफ्तार होने से पहले बुर्के में ब्रिटिश राजधानी से फरार हो गया था। 2006 में हत्या का आरोपी मुस्ताफ जामा हीथ्रो हवाई अड्डे के रास्ते ब्रिटेन से बुर्क़ा में फरार हो गया। तो क्या इस पर वाकई में कोई हैरानी होगी कि आतंकवादी कार्रवाई का संदिग्ध मोहम्मद अहमद मोहम्मद पश्चिमी लंदन में एक मस्जिद से बाहर आने के बाद बुर्के में फरार हो गया? ऐसा कोई भी कपड़ा जो चेहरा छिपा दे और उसकी पहचान करना असम्भव हो जाए, वो जायज़ नहीं।

बहुत से दूसरे लोगों की तरह मुझे भी चेहरे को छिपा देने वाले बुर्क़े और पूरे शरीर को ढक लेने वाले कपड़े, बुर्क़े को देख कर गुस्सा आता है। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि मैं बुर्के पर पूरी तरह पाबंदी पर यक़ीन नहीं रखता। लेकिन इसके बदले में दी जाने वाली सुविधा ये है कि ऐसे समय जब समाज में प्रत्येक व्यक्ति दूसरों से उनकी पहचान की उम्मीद रखता है, तो नक़ाब पहनने वाली एक औरत को इससे अपवाद स्वरूप अलग नहीं रखा जा सकता।

वक्त आ गया है कि हम वास्तविक सुरक्षा चिंताओं का खात्मा करें और आधुनिक ब्रिटेन में चेहरा छिपाने के गंभीर सामाजिक प्रभाव को दूर करें। ये न केवल उचित है बल्कि हमारी ज़िम्मेदारी है कि बैंकों, एयर-पोर्ट, अदालतों और स्कूलों जैसे पहचान के संवेदनशील माहौल वाले स्थानों पर प्रवेश करने वालों से अपने चेहरे से बुर्क़ा हटाने के लिए आग्रह करें।  कानूनी तौर पर बात की जाए तो किसी भी अपवाद के लिए कोई आधार नहीं है। फिर भी दुखद तथ्य ये उम्मीदें हैं जो इसलिए की जा रही हैं कि हम ऐसा करने के लिए काफी हद तक कमज़ोर इरादे वाले हो गए हैं।

मुझे इसे स्पष्ट करने दें। ये मेरा कर्तव्य है कि एक ऐसी रणनीति अपनाऊँ कि सार्वजनिक स्थानों पर बुर्क़ा पहनने की पाबंदी हो। यहाँ मेरा इम्तेहान है। जहां पूरे सिर और गर्दन को छिपा लेने वाला एक ऊनी टोपा, मोटरसाइकिल हेलमेट या चेहरे का मुखौटा अनुचित नज़र आता है, वहाँ क्या नक़ाब होना चाहिए। ये बहुत सीधा सच है। टीचर्स पहले ही स्कूल के गेट पर बच्चों को बिना पहचान के उनके बड़ों के हवाले न करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। छात्रों से पहले ही आशा की जाती है कि वो कॉलेजों और युनिवर्सिटियों में दाखिल होते समय अपना पहचान पत्र दिखाएं। दरअसल परीक्षा कक्ष में बैठने वाली छात्राओं के लिए भी अपना फोटो पहचान पत्र पूरे समय डेक्स पर स्पष्ट कर के रखने की उम्मीद की जाती है।

ये पहले से एक परंपरा है कि अदालत में जब गवाही दी जाती है तब जज और ज्यूरी इस व्यक्ति की पहचान और चेहरे की प्रतिक्रिया को गौर से देखते हैं। मोटर साइकिल सवारों से पहले ही उम्मीद होती है कि वो किसी बैंक में दाखिल होते समय अपना हेलमेट उतार लें। (मेरे संगठन क्यूलियाम) की तरफ से उग्रवाद के उन्मूलन के काम पर सोमाली आतंकवादी समूह अलशबाब की हाल ही की मौत की धमकियों की रौशनी में बुर्क़ा से सम्बंधित सभी चिंताएं मेरे लिए निजी हैसियत अख्तियार कर गईं हैं। मुझे याद कि पार्लियमेंट के सदस्य स्टीफन टम्ज़ को एक मुस्लिम कट्टरपंथी महिला ने उनकी अपनी सर्जरी में चाकू मारा दिया था। एक प्रस्तावित पार्लियमेंट के सदस्य की हैसियत से मैं जानता हूँ कि मुझे भी सावधानी की ज़रूरत होगी।

इसलिए मेरे लिए ये स्वाभाविक ज़रूरत है कि अगर मैं चयनित हो जाऊँ तो इस बात पर ज़ोर दूँ कि मेरी सर्जरी या दफ्तर आने वाली सभी लोग अपनी पहचान को सत्यापित कराएं, जिसका मतलब ये है कि अपना चेहरा दिखाएं। एक अधार्मिक मुसलमान की हैसियत से जो कि इस्लामी शिक्षाओं से पूरी तरह परिचित हो। मैं अत्यंत रूढ़िवादी दृष्टिकोण से परिचित हूँ कि मुस्लिम महिलाओं को अनिवार्य रूप से अपने चेहरे को छिपाना चाहिए। यहां तक ​​कि हर हाल में इसका पालन करें, जब वो घर से बाहर हों। इसलिए ये दावा अनुचित होगा कि नक़ाब इन-डोर जैसे स्कूल या दफ्तर के माहौल में ज़रूरी है।  ये भी सच है कि इस्लाम सार्वभौमिक रूप से महिलाओं को पहचान के लिए किसी भेदभाव के बिना अपने चेहरे दिखाने की इजाज़त देता है। आखिर में धार्मिक लिबास पर मध्यकाल के मुस्लिम कानून किसी भी स्थिति में बच्चों पर लागू नहीं होते। इसलिए ऐसे स्कूल जो बच्चों के ड्रेस कोड के रूप में दुपट्टा, चेहरे पर बुर्क़ा और बुर्क़े पहनने पर अमल कराते हैं, वो पिछड़ेपन की तरफ ले जाने के दोषी हैं। जिसका परिणाम कट्टरपंथियों की जीत के रूप में होगा। लेकिन कॉमन सेंस और धार्मिक आमसहमति को ऐसा नज़र आता है कि हाल के बरसों में खिड़की से बाहर फेंक दिया गया है। क्योंकि बहुत से नौजवान मुस्लिम महिलाएँ और उनके वामपंथी सहयोगी मिशन के खिलाफ बर्दाश्त करने के रूप में बुर्के का बचाव करते नज़र आते हैं।

बहुत से लोगों के लिए बुर्क़ा सरकार का विरोधी होने का प्रतीक बन गया है, जिसके चारों ओर कोई विवाद का मौका हल करने के लिए चक्कर लगा सकता है। इस्लामोफ़ोबिया के आशा से अधिक आरोप जो कि आमतौर पर चेहरे को छिपाने से सम्बंधित वास्तविक चिंताओं के उन्मूलन के लिए, समझ में आने लायक उपायों की कोशिश के लिए, वो बहस का विषय बन जाते हैं। बर्मिंघम मेट्रोपोलिटन कॉलेज की तरफ से कैम्पस में छात्राओं को अपने चेहरे ढँकने पर पाबंदी की योजना को वापस लिया जाना, इस मामले का एक बिंदु है। कॉलेज की तरफ से चेहर को ढाकने पर पाबंदी को न सिर्फ मुसलमानों बल्कि बहुत से वामपंथी छात्रों ने भी चुनौती दी थी। ऐसे बहुत से लोग हैं जो ये मानते हैं कि एक मर्द की हैसियत से यहां तक ​​कि एक मुसलमान मर्द की हैसियत से मुझे महिलाओं की धार्मिक पोशाक पर टिप्पणी करने का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन मैं (तक़्वा- धर्मपरायणता) के निश्चित स्तर पर चलने के लिए किसी से भी कोई लेक्चर नहीं सुनुँगा, जिसे मेरी मां, मेरी बहन और मेरी महिला मित्रों से देखा जा सकेगा कि वो किस तरह अधार्मिक रूप से लिबास पहनती हैं।

इसके विपरीत अपने सत्य के मिशन को आन-एयर और सार्वजनिक स्तर पर बहस में ले जाऊंगा और इस बात की पहचान करूँगा कि ये वो लोगों, बहुत खतरनाक लोग, वास्तव में बुर्क़ा में महिलाओं के रूप में तैय्यार होकर हमारी सिक्योरिटी सर्विसेज़ को चोट कौन पहुँचा रहा है। ये मुश्किल है कि हम बुर्क़ा पहनने वालों के बजाय किसी भी व्यक्ति के खिलाफ भेदभाव की इजाज़त दें। हां महिलाएं उस समय अपने चेहरे को ढाँकने के लिए आज़ाद हैं, जब वो सड़क पर जा रही हों। लेकिन हमारे स्कूलों, अस्पतालों, एयर पोर्ट्स, बैंकों और सिविल संस्थानों में ऐसा करने का कोई औचित्य नहीं है। न ही ये इस्लामी शिक्षाओं के खिलाफ है कि हम महिलाओं से ये उम्मीद रखें कि वो अपना चेहरा दिखा दें, ताकि हम सब उनके चेहरे से उनके नाम की पहचान कर सकें।

22 नवम्बर, 2013 स्रोत: रोज़नामा जदीद मेल, नई दिल्ली

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